Monday, June 25, 2018

क्षणिकाएं

*क्षणिकाएं*

-कुमार अनेकान्त

*बोली*

हम लगवाएं
तो धर्म
दूसरे लगवाएं
तो व्यवसाय

*दान*

हमें दो
तो पुण्य
उन्हें दो
तो पाप

*सम्यग्दर्शन*

हमें मानो
तो सम्यग्दृष्टि
अन्य को मानो
तो मिथ्यादृष्टि

*पुण्य-पाप*

हम कुछ भी करें
वो पुण्य
तुम कुछ भी करो
वो पाप

धर्म-अधर्म का आधार
कब का डूब मरा
खरा सो मेरा
नहीं ,अब
मेरा सो खरा

Sunday, June 24, 2018

पुनर्स्थापन

बुझ गयी अंदर की आग
अब न दीवाली है न फाग
डूबे हैं  बदरंगी दुनिया में
न राग ढंग से और न विराग

तूने कुंठाओं से था उबारा
हर पल दिया था पुनर्जन्म
हो कृतघ्न तुझको ही भूले
अब प्रायश्चित्त का है प्रसंग

कृत्रिम हो गया है जीवन
न प्रेम बचा न शेष धर्म
काव्यनीर जीवन उसका
पुनः सिंचित हो काव्यकर्म

औषधि थी यह काव्यकला
रोग जब हो गया दूर
त्याग औषधि वैद्य को तब
राग रंग में हुआ मशगूल

छेदोपस्थापन आज हुआ है
जीवित हो रहा अनेकान्त
मां सरस्वती की हो कृपा
अरमान पूरे हों दो वरदान

- कुमार अनेकान्त

पुराने दिन

आज छात्र जीवन के एक अनन्य मित्र से मुलाकात हुई तो पुराने दिन याद आ गए । कविता लिखना छूट गया कहा तो वो गुस्सा हो गया और जिद करके ये पंक्तियां लिखवा गया ........................

याद करें उन मधुर पलों को
जब दिल खोल के जीवन जीते थे

न थी कोई जिम्मेदारी
अपनी दुनिया में रहते थे
कोई दो पंक्ति भी मांगे तो
लंबा ख़त लिख देते थे

दिमाग से नहीं दिल से सोचा करते थे
प्यार हो या गुस्सा
कहने से नहीं डरते थे

जुनून था और जज़्बा भी
हमेशा कुछ नया करते थे
तोड़ते नहीं थे विश्वास उसका
दोस्ती जिससे करते थे

नादान थे और भावुक भी
खुद के ही नशे में रहते थे
शैतानियां चाहे जितनी करें
साजिशें कभी न करते थे 

जायज़ न लगे कोई बात
तो विरोध खुलकर करते थे
छात्र थे विचारक भी
झूठी दुनिया से न डरते थे

टेंशन देते हों भले बहुत
खुद कभी नहीं लेते थे
कोई सखा हो डिप्रेशन में
गले लगा उसे खुश करते थे

अब वैसा सावन नहीं है
न ही है वो मानवता
दुनिया ढल चुकी नफ़रत में
न ही है वो भावुकता

याद करें उन मधुर पलों को
जब दिल खोल के जीवन जीते थे
खुलकर हँसते खुल कर गाते
नहीं फ़िक्र किसी की करते थे

- कुमार अनेकान्त