बुझ गयी अंदर की आग
अब न दीवाली है न फाग
डूबे हैं बदरंगी दुनिया में
न राग ढंग से और न विराग
तूने कुंठाओं से था उबारा
हर पल दिया था पुनर्जन्म
हो कृतघ्न तुझको ही भूले
अब प्रायश्चित्त का है प्रसंग
कृत्रिम हो गया है जीवन
न प्रेम बचा न शेष धर्म
काव्यनीर जीवन उसका
पुनः सिंचित हो काव्यकर्म
औषधि थी यह काव्यकला
रोग जब हो गया दूर
त्याग औषधि वैद्य को तब
राग रंग में हुआ मशगूल
छेदोपस्थापन आज हुआ है
जीवित हो रहा अनेकान्त
मां सरस्वती की हो कृपा
अरमान पूरे हों दो वरदान
- कुमार अनेकान्त
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