न जाने किस साजिश में फँसते जा रहे हैं
भरी महफ़िल में भी अकेले होते जा रहे हैं
अरसा गुजर गया उन्हें मनाने की कोशिश में
जितना करीब थे उतने ही दूर होते जा रहे हैं
तुम बेख़बर रहे हो हमारे हाल चाल से
और हम तेरी फ़िक्र में जले जा रहे हैं
ख्वाहिश कब मुक्कमल होती हैं यहाँ,
फिर भी ख्वाहिशों में मरे जा रहे हैं
कुमार अनेकांत
17/7/24