Monday, June 29, 2020

घूंघट

हर तरफ जरूरी है घूंघट 

लज्जा में जरूरी,
मर्यादा में जरूरी,
मजबूरी नहीं
शान है घूंघट ।
संस्कृति की पहचान है घूंघट ,
हर तरफ जरूरी है घूंघट ।।


भोजन को जरूरी, पानी को जरूरी ।
तन को जरूरी,
मन को जरूरी ।।

सुरक्षा में ढांकने का नाम है घूंघट ,
हर तरफ जरूरी है घूंघट ।

धन को जरूरी,पुस्तक को जरूरी ।
इज्जत को जरूरी ,
वायरस की मजबूरी ।।

मुख का नया मास्क हैं घूंघट ,
हर तरफ जरूरी है घूंघट ।

खुद को जरूरी,आपको जरूरी।
बहू को जरूरी,
सास को जरूरी ।।

शाश्वत सौंदर्य बोध है घूंघट ,

हर तरफ जरूरी है घूंघट ।।

कुमार अनेकांत 
२९/०६/२०२०

Tuesday, June 23, 2020

समकालीन प्राकृत कविता १९-२०

*णमो जिणाणं*

*णिरक्ख‌ओ गंथिणो,सेट्ठो गंथिओ णाणदाणी च* ।

*दाणिओ वरतावसी*,
*तावसिओ वराप्पदरसी ।।*

निरक्षर लोगों से ग्रंथ पढने वाले श्रेष्ठ ।उनसे भी अधिक ग्रंथ समझाने वाले श्रेष्ठ । ग्रंथ समझाने वालों से भी अधिक  श्रेष्ठ तप करने वाले हैं  तथा उनसे भी अधिक आत्मा का अनुभव करने वाले श्रेष्ठ होते है।

*दुओ पंखओ जहा च*
*पक्खिणो उड्डंति णीलो ग‌अणे* ।
*तहा णाणचारित्तो जीवो लह‌इ च  मोक्खसुहं*।

    "जिस तरह दो पंखो के आधार से पक्षी आकाश में ऊँचा उडता है उसी तरह ज्ञान तथा  चारित्र से जीव मोक्ष को प्रााप्त करता है ।

Thursday, June 18, 2020

समकालीन प्राकृत कविता १८ पीड़ा

समकालीन प्राकृत कविता

पीड़ा

पीडियो सहइ पीडा तं ण खलु गच्छइ पीडा जं ददइ |
कसायेण सयं दहइ परकत्ताभावेण जीवो ||

भावार्थ

पीड़ित व्यक्ति तो पीड़ा सह भी जाता है ,लेकिन जो पीड़ा देता है निश्चित ही उसकी पीड़ा नहीं जाती | पीड़ा देने वाला जीव मिथ्या ही पर कर्तृत्व के भावों से , कषाय से  स्वयं जलता रहता है |

कुमार अनेकांत
१८/०६/२०२०

Monday, June 15, 2020

समकालीन प्राकृत कविता १७ विपरीत युग और वक्ता


समकालीन प्राकृत  कविता

विपरीत युग और वक्ता

विवरीयो जुगो अत्थि वत्ता च किं करिस्संति भगवओ 
धम्मगिहत्थोवदिसइ बंभचारीबालपालणं ।।

यह युग भी विपरीत है और वक्ता भी ,तो भगवान् भी क्या करेंगें ?
गृहस्थ मोक्ष का उपदेश दे रहे हैं और ब्रह्मचारी सिखा रहे हैं कि बच्चों का लालन पालन कैसे किया जाय ?

कुमार अनेकांत 
१६/०६/२०२०

Saturday, June 6, 2020

णिय - बोह ( निज बोध )

णिय - बोह ( निज बोध )

अप्पणो सुद्धमप्पा ण पवयणेण ण बहुसुयेण लद्धं ।
झाणेण णा वि लद्धं णियप्पम्मि परिणमदि सयमेव ।।१।।

भावार्थ 
अपना शुद्धात्मा न प्रवचन करने से , न बहुत प्रवचन सुनने से और न ही वह ध्यान से प्राप्त होता है । निजात्मा में वह स्वयमेव ही परिणमित  होता है ।

सज्झायेण ण लद्धं ण खलु वयमहव्वयोववासेहिं ।
पूयेण णा वि लद्धं णियप्पम्मि परिणमदि सयमेव ।।२।।

भावार्थ 
वह स्वाध्याय के द्वारा,व्रत,महाव्रत उपवास और पूजा पाठ से भी नहीं प्राप्त होता है ।निजात्मा में वह स्वयमेव ही परिणमित  होता है ।


घोरतवेण ण लद्धं ण पंययल्लाणयमहोसवेहिं ।
मंतेण णा वि लद्धं णियप्पम्मि परिणमदि सयमेव ।।३।।

घोर तप और पञ्च कल्याणक आदि महोत्सवों,मंत्र तंत्र आदि से भी प्राप्त नहीं होता । निजात्मा में वह स्वयमेव ही परिणमित  होता है ।


ववहारेण ण लद्धं ण कत्ताभाव- णिमित्तदिट्ठेण च ।
कालेण उवायाणेण
णियप्पम्मि परिणमदि सयमेव ।।४।।

भावार्थ 
वह शुद्धात्मा व्यवहार दृष्टि से, कर्त्ता भाव से और न ही निमित्त आधीन दृष्टि से प्राप्त होता है । वह समय आने पर निज योग्यता ( उपादान)  से निजात्मा में स्वयमेव ही परिणमित  होता है ।

कुमार अनेकांत 
७/०६/२०२०
रात्रि २:४२ 
स्थान : नई दिल्ली