तुम किस मिट्टी के बने थे
- कुमार अनेकान्त
दादा
तुम किस मिट्टी के बने थे
असंख्य तूफानों के बीच भी
अकम्पित तने थे
नख से शिख तक
तुम्हें घेरे रहने वाले
कष्टों की छाया भी
तुम्हारे चेहरे पर
नहीं दिखती थी
विरोधियों की भीड़
आनंदित मुख पर
चिंता का एक भी
अक्षर नहीं लिखती थी
अपने भीतर
संघर्षों का जहर छिपाए
किसी समुंदर की भांति
शांत और गहरे थे तुम
प्रवचन लेखन से
मिथ्यात्त्व भगा देते थे
उदास चेहरों को हँसाकर
पल में बहला देते थे
सहज ही रहते थे
और वही सिखलाते थे
जिनवाणी के सच्चे सपूत
कहलाते थे
जब कि हम और
हमारे जैसे कई
अपने राई से दुःख को
पहाड़ सा बताते हैं
कृत्रिम विकल्प लादे
शिकवे शिकायत करते
रोते और पछताते हैं
अभिलाषा बस यही है
कि तुम्हारे व्यक्तित्व का
एक अंश भी पा सकूँ
मिथ्यात्व के अंधकार में
सम्यक्त्व का दीप जला सकूँ
प्रश्नों और समस्याओं
के बीच भी
तुम जैसा खुलकर गा सकूँ
और अंत समय तक
जिनवाणी सुना सकूँ
सहज समाधि
प्राप्त कर सकूँ ।
दादा
तुम किस मिट्टी के बने थे
असंख्य तूफानों के बीच भी
अकम्पित तने थे ।
(26/03/23 तत्त्ववेत्ता प्रख्यात जैनदार्शनिक अध्यात्म मर्मज्ञ गुरुवर डॉ हुकुमचंद भारिल्ल जी की समाधि पर भावांजलि / विनयांजलि ।)
Bhut hi sundar kanlmal the dada
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