Thursday, July 17, 2025

ख्वाहिश


न जाने किस साजिश में फँसते जा रहे हैं
भरी महफ़िल में भी अकेले होते जा रहे हैं

अरसा गुजरा उन्हें मनाने की कोशिश में 
जितना करीब माना उतने दूर जा रहे हैं

तुम बेख़बर रहे हो हमारे हाल चाल से 
और हम तेरी फ़िक्र में  जले जा रहे हैं

ख्वाहिश कब मुक्कमल होती हैं यहाँ
फिर भी ख्वाहिशों में जिये जा रहे हैं 

©kumar Anekant
17/07/24

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