मेरी अज्ञान मीमांसा
- कुमार अनेकान्त
जब मैं अपने भीतर उतरकर देखता हूँ,
तो एक मौन-सा प्रश्न मुझे घेर लेता है—
मैं इतना अशांत क्यों रहता हूँ, जबकि बाहर तो कुछ भी स्थायी नहीं है?
तभी मुझे अपनी निपट अज्ञानता भी दिखाई देती है।
मैं ही हूँ, जो हर क्षण इष्ट और अनिष्ट की रेखाएँ खींचता रहता हूँ।
मैं ही हूँ, जो कल्पनाओं के रंग भरकर संसार को अपने अनुकूल या प्रतिकूल बनाने की मिथ्या कल्पना करता हूँ।
और फिर उन्हीं रंगों से स्वयं को बाँध लेता हूँ।
मेरी अज्ञानता का मूल यह है कि मैं 'स्व' को भूल चुका हूँ।
इतना भूल चुका हूँ कि अब सदा पर में जीता हूँ—
दूसरों की प्रतिक्रियाओं में, परिस्थितियों के उतार–चढ़ाव में,
वस्तुओं के मिलने–न मिलने में।
जो मुझे सहूलियत देता है,
मैं उसे इष्ट कहकर सीने से लगा लेता हूँ।
जो मेरी राह में बाधा बनता है,
मैं उसे अनिष्ट कहकर भीतर ही भीतर ठुकरा देता हूँ।
पर क्या सचमुच वे वस्तुएँ या इंसान ऐसे हैं?
या यह केवल मेरी दृष्टि का भ्रम है?
धीरे-धीरे यह रहस्य मुझ पर खुलने लगता है—
इष्ट–अनिष्ट किसी वस्तु में नहीं है, वह केवल मुझमें है।
वस्तुएँ तो बस जैसी हैं, वैसी ही हैं—
न प्रिय, न अप्रिय।
प्रियता और अप्रियता तो मैंने ओढ़ ली है।
एक ही वस्तु,
एक ही क्षण में मुझे भाती है
और अगले ही क्षण मुझे बोझ लगने लगती है।
भूख में जो भोजन मुझे अमृत लगता है,
तृप्ति के बाद वही भोजन आँखों से ओझल हो जाना चाहता है।
तब मैं समझ पाता हूँ—
स्वाद वस्तु में नहीं, मेरी मनःस्थिति में था।
तो फिर मैं किससे लड़ रहा हूँ?
किससे प्रेम कर रहा हूँ?
दरअसल, मैं तो अपनी ही कल्पनाओं से उलझा हुआ हूँ।
मेरे सुख और मेरे दुःख—
मेरी शांति और मेरी कषाय—
इन सबका कारण न तो कोई व्यक्ति है,
न कोई परिस्थिति।
कारण केवल वह विकल्प है,
जो मैं क्षण-क्षण उठाता हूँ।
मैं चाहूँ तो उसी क्षण स्वयं को सुखी मान सकता हूँ।
और चाहूँ तो उसी क्षण दुखी।
यह अधिकार किसी और के पास नहीं—
यह मेरे ही हाथ में है।
पर तभी भीतर से एक और गहरी आवाज़ उठती है—
क्या यही वास्तविक आनंद है?
नहीं…
वास्तविक आनंद तो तब है
जब मैं कोई विकल्प ही न उठाऊँ।
जब मैं रुक जाऊँ।
जब मैं मौन हो जाऊँ।
मेरे मन में तो हर समय कुछ न कुछ चलता रहता है—
शब्द, चित्र, स्मृतियाँ, आशंकाएँ।
और मैं अब तक इन्हीं को मैं समझता रहा।
पर आज पहली बार
मैं उस साक्षी को महसूस करता हूँ—
जो इन सबको देख रहा है।
जो शांत है।
जो अछूता है।
मैं समझता हूँ कि
मैं मन नहीं हूँ।
मैं वह हूँ, जो मन को जानता है।
मैं भूतकाल में भटकता हूँ—
जो जा चुका है, जो अब जीवित ही नहीं।
मैं भविष्य में उलझता हूँ—
जो अभी आया ही नहीं।
और वर्तमान…
इस चक्कर में
वर्तमान तो मैं जी ही नहीं रहा।
इन विचारों से मुझे केवल अशांति मिलती है।
और साथ ही अनजाने में
मैं नए-नए कर्मों की बेड़ियाँ गढ़ता चला जाता हूँ।
अब मुझे यह भी दिखने लगा है कि
कोई भी विकल्प हल्का नहीं होता।
हर विकल्प की कीमत होती है।
और वह कीमत मुझे ही चुकानी पड़ती है।
तो फिर क्यों न मैं रुक जाऊँ?
क्यों न मैं इस क्षण में ठहर जाऊँ?
जो बीत गया, उसे जाने दूँ।
जो आने वाला है, उसे आने दूँ।
और जो अभी है—
उसे बस देखूँ।
बिना जोड़े।
बिना तोड़े।
बिना नाम दिए।
बस देखता रहूँ…
बस जानता रहूँ…
सहज रहूँ
ज्ञाता–द्रष्टा बनकर।
और इसी मौन में,
इसी निर्विकल्प स्थिति में,
मुझे पहली बार
अपने होने की हल्की-सी सुगंध मिलने लगती है।
लगने लगता है कि
स्व को जाने बिना
पर को जानना ज्ञान नहीं अज्ञान है
क्यों कि
स्व को जानना ही ज्ञान है ।
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