*अपनाष्टक*
दुख की काली बदली छायी,
न खुशियों की कोई बात है ।
अवसाद भरी इस महफिल में ,
अब हर कोई नाराज़ है ।।१।।
न खुशियों की कोई बात है ।
अवसाद भरी इस महफिल में ,
अब हर कोई नाराज़ है ।।१।।
मन अच्छा हो तो हम ढूढें,
रोज बहाने मिलने के ।
मन कच्चा हो तो हम ढूढें,
रोज बहानें लड़ने के ।।२।।
रोज बहाने मिलने के ।
मन कच्चा हो तो हम ढूढें,
रोज बहानें लड़ने के ।।२।।
छोटी छोटी बातों में ,
तिल का ताड़ बनाते हम ।
व्यर्थ सभी अध्यात्म है दिखता,
यदि साथ नहीं रह पाते हम ।।३।।
तिल का ताड़ बनाते हम ।
व्यर्थ सभी अध्यात्म है दिखता,
यदि साथ नहीं रह पाते हम ।।३।।
अपनों को विस्मृत करके हम ,
औरों को गले लगाते हैं ।
उनसे मिलते मुस्काते हैं ,
बस अपनों में छल दिखलाते हैं ।।४।।
औरों को गले लगाते हैं ।
उनसे मिलते मुस्काते हैं ,
बस अपनों में छल दिखलाते हैं ।।४।।
अपना ही है प्रतिद्वंद्वी ,
गैर सहयोगी दिखते हैं ।
अपने ठगे जाते हैं अब तो ,
गैर ही मजे उड़ाते हैं ।।५।।
गैर सहयोगी दिखते हैं ।
अपने ठगे जाते हैं अब तो ,
गैर ही मजे उड़ाते हैं ।।५।।
भाग्य बंधा है जिनसे अपना ,
कैसे भी उनसे बोलो तुम ।
संवादों को जारी रखो,
उसकी भूलों को भूलो तुम ।।६।।
कैसे भी उनसे बोलो तुम ।
संवादों को जारी रखो,
उसकी भूलों को भूलो तुम ।।६।।
कल तक जो था जान छिड़कता ,
अचानक क्यों बेरुखा
दिखता है ?
कुछ तो मजबूरी का मारा होगा ,
वरना क्यों बेवफा लगता है ?।। ७ ।।
अचानक क्यों बेरुखा
दिखता है ?
कुछ तो मजबूरी का मारा होगा ,
वरना क्यों बेवफा लगता है ?।। ७ ।।
है खुद से ही परेशान सजन वो ,
और बदला तुमसे लेता है ।
जब हार जाता है इंसा दुनिया से ,
विक्षिप्त अपनों को करता है ।।८।।
और बदला तुमसे लेता है ।
जब हार जाता है इंसा दुनिया से ,
विक्षिप्त अपनों को करता है ।।८।।
पर में अपनापन करके ही ,
हम संतुष्ट हो लेते हैं ।
अपन, अपने को करके विस्मृत ,
हम अपने को छलते हैं ।।
हम संतुष्ट हो लेते हैं ।
अपन, अपने को करके विस्मृत ,
हम अपने को छलते हैं ।।
- कुमार अनेकांत
२४/०७/२०१९
२४/०७/२०१९
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