*शाश्वत परिणय*
अदृश्य हैं संबंध हमारे,
अनभिव्यक्त बंधन है सारे ।
जुड़ गया हूं कुछ इस तरह से,
न तुम हमारे हम तुम्हारे ।।१।।
एक है सब दो नहीं है,
अभेद है सब भेद नहीं है ।
तुम नहीं कुछ मैं नहीं कुछ,
है सब कुछ पर कुछ नहीं है ।।२।।
कुछ नहीं कहना है मुझको ,
कह दिया सब मौन ने ही।
उत्तर की आशा नहीं है ,
बातें आंखों ने कहीं हैं ।।३।।
सुनसान है संसार हमारा ,
पर संवाद हर पल चल रहा है ।
प्रकट भले ना हो परंतु ,
प्यार दोनों में पल रहा है ।।४।।
व्यक्त भले ना हो परंतु ,
परिणय शाश्वत हो चुका है ।
अनेकांत में था जो द्वंद्व ,
वह अनुभूति में खो चुका है ।।५।।
कुमार अनेकांत
१/१/२००१
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