Friday, January 15, 2021

समकालीन प्राकृत कविता 22 उपयोग की पतंग

सगोवओयपतंगं , ताव उड्डेइ अज्झप्पागासे ।
जाव खलु तस्स डोरा,
संजुत्तो जइ सग अप्पणा ।।

अपने उपयोग(चैतन्य) की पतंग अध्यात्म के आकाश में तब तक सही उड़ती है जब तक डोर खुद से जुड़ी हो ।
टूटी डोर की पतंग स्वछंद होकर कहाँ गिरती है? कितना गिरती है ? कौन सी वासना उसे लूट लेती है पता ही नहीं चलता ।

- कुमार अनेकान्त
14/1/2021
makar sankranti

No comments:

Post a Comment