Friday, May 22, 2020

समकालीन प्राकृत कविता १० पंचमकाल में श्रावकधर्म

पंचमकाल में श्रावकधर्म

पूया सज्झाय सयय,
दाणं मुख्खं खलु सावयधम्मे ।
पंचमयाले रयणं ,
अणुव्व‌ओ हव‌इ भूसणं ।।

भावार्थ -

पंचमकाल में श्रावक धर्म में सतत सच्चे देव शास्त्र गुरु की पूजा ही सम्यग्दर्शन,सतत स्वाध्याय ही सम्यग्ज्ञान और सत्पात्र को दान ही सम्यग्चारित्र है । यह ही सामान्य श्रावक का मुख्य रत्नत्रय है । यदि वह अणुव्रत धारण कर लेता है तो वह श्रावक के लिए आभूषण के समान होता है।

कुमार अनेकांत 
२३/०४/२०२०

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