Monday, May 25, 2020

समकालीन प्राकृत कविता १३-१४ पाप

ण मण्णदि सयं अप्पा,
जेट्ठपापं खलु सव्वपापेसु ।
तेसु य सादो उत्तं
पापिस्स लक्ख‌णं जिणेहिं ।।

भावार्थ :
निश्चित ही स्वयं को आत्मा न मानना सभी पापों में सबसे बड़ा पाप है । और जिनेन्द्र भगवान् ने पापों में स्वाद लेना ही पापी का लक्षण बताया है ।

दुक्खी होदि य हिंसा ,
झूठकत्ता मण्णदि परदव्वस्स  ।
परं मम चोइमुच्छा 
परसुहबुद्धि कुसीलो होदि ।।

भावार्थ 
दुखी होना ही हिंसा है , स्वयं को पर का कर्ता मानना ही झूठ है , पर को अपना मानना ही चोरी है ,पर में मूर्च्छा ( आसक्ति)ही परिग्रह और पर में सुख बुद्धि ही कुशील होता है ।


कुमार अनेकांत

No comments:

Post a Comment