ण मण्णदि सयं अप्पा,
जेट्ठपापं खलु सव्वपापेसु ।
तेसु य सादो उत्तं
पापिस्स लक्खणं जिणेहिं ।।
भावार्थ :
निश्चित ही स्वयं को आत्मा न मानना सभी पापों में सबसे बड़ा पाप है । और जिनेन्द्र भगवान् ने पापों में स्वाद लेना ही पापी का लक्षण बताया है ।
दुक्खी होदि य हिंसा ,
झूठकत्ता मण्णदि परदव्वस्स ।
परं मम चोइमुच्छा
परसुहबुद्धि कुसीलो होदि ।।
भावार्थ
दुखी होना ही हिंसा है , स्वयं को पर का कर्ता मानना ही झूठ है , पर को अपना मानना ही चोरी है ,पर में मूर्च्छा ( आसक्ति)ही परिग्रह और पर में सुख बुद्धि ही कुशील होता है ।
कुमार अनेकांत
No comments:
Post a Comment